Acharya Atma Ramji

जैन धर्म दिवाकर श्रुत रत्नाकर आचार्य सम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज

हजारों जीव प्रतिक्षण जन्म लेते हैं और मनुष्य का शरीर धारण करके इस धरातल पर अवतरित होते रहते हैं, परन्तु सबकी जयन्तियां नहीं मनाई जाती। न ही सबको श्रद्धा और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। आदर व श्रद्धा उन्हीं लोगों को प्राप्त होती है जो अपने लिए नहीं, समाज के लिए जीते हैं। जन-जीवन के उत्थान, निर्माण एवं कल्याण के लिए जो अपनी समस्त जीवन शक्तियां समर्पित कर देते हैं। वे स्वयं जहां आत्म कल्याण में जागरूक रहते हैं वहां वे दूसरों की हित साध्ना का भी पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं।
आचार्य सम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज उन महापुरुषों में से एक थे जिनका जीवन सदा लोकोपकारी कार्यों में संलग्न रहा। जो गंगा की भांति निरन्तर जन जीवन को पावन करने में भी जुटे रहे। जीवन के 77 वर्षों तक वे अहिंसा, संयम और तप के दीप जगाते रहे। इनकी जीवन सरिता जिधर से गुजर गई वहीं पर एक अदभूद शलीनता सरसब्जता छा गई है। आज भी इनकी अमर वाणी जन-जीवन के लिए प्रकाश-स्तम्भ का काम कर रही हैं।

जन्मकाल :
आचार्य सम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज का जन्म वि.सं. 1939 भादों सुदी द्वादशी को पंजाब प्रान्तीय राहों के प्रसिद्ध व्यापारी सेठ मंशाराम जी चोपड़ा के घर में हुआ था। माता जी नाम परमेश्वरी देवी था। सोने जैसे सुन्दर लाल को पाकर माता-पिता पफूले नहीं समा रहे थे। पुण्यवान सन्तति भी जन्म-जन्मातर के पुण्य से ही प्राप्त हुआ करती है।

संकट की घड़ियां :
आचार्य श्री का बचपन बड़ा संकटमय रहा। असाता-वेदनीय कर्म के प्रहारों ने इन्हें बुरी तरह से परेशान कर दिया था। दो वर्ष की स्वल्प आयु में आप की माता जी का स्वर्गवास हो गया। आठ वर्ष की आयु में पिता परलोक वासी हो गए। मात्रा एक दादी थी जिसकी देख-रेख में आपका शैशवकाल गुजरा। दो वर्षों के अन्तर्गत उनका भी देहान्त हो गया। इस तरह आचार्य देव को बचपन से संकट ने बुरी तरह से आकान्त कर लिया था। ऐसा प्रायः होता ही है, महापुरुषों का बाल्यकाल प्रायः संकट की घाटियां पाकर सफलता के शिखर पर पहुँचता है।

संयम-साध्ना की राह पर :
माता-पिता और दादी के वियोग मे आचार्य देव के मानस को संसार से बिल्कुल उपराम कर दिया था। संसार की अनित्यता को आपने भली-भांति जान लिया था। आत्म-साध्ना और प्रभु भक्ति का महापथ आपको सर्वश्रेष्ठ अनुभव होने लगा। फलतः आप सम्वत् 1951 में बनूड़ शहर में 12 वर्षों की स्वल्प आयु में महामहिम गुरुदेव श्री शालिगराम जी महाराज के चरणों में दीक्षित हो गए।

साहित्य सेवा :
आपका शास्त्रा-स्वाध्याय बड़ा विलक्षण था। आपके वैदुष्य की विलक्षणता के कारण ही आपको पंजाब सम्प्रदाय के उपाध्याय पद से विभूषित किया गया। आपने 60 के लगभग ग्रंथ लिखे, बड़े-बड़े शास्त्रों का भाषानुवाद किया। ‘तत्त्वार्थ सूत्रा’ (जैनागम-समन्वयद्ध)आपकी एक विलक्षण एवं अपूर्व रचना है। जर्मन, फ्रांस, अमरीका तथा कनाडा के विद्वानों ने भी इस रचना का हार्दिक अभिनन्दन किया था। जैन, बौद्ध और वैदिक शास्त्रों के आप जाने-माने विद्वान थे। आपकी साहित्य-सेवा जैन जगत के साहित्य गगन पर सूर्य की तरह सदा चमचमाती रहेगी।

सहिष्णुता के महासागर :
वीरता, धीरता तथा सहिष्णुता के आप श्री महासागर थे। भयंकर से भयंकर संकटकाल में भी आपको किसी ने परेशान नहीं देखा। एक बार लुधियाना में आपकी जांघ की हड्डी टूट गई, उसके तीन टुकड़े हो गए। लुधियाना के क्रिश्चियन हाॅस्पिटल में डाॅ. वर्जन ने आपका आॅपरेशन किया। आॅपरेशन काल में आपको बेहोश नहीं किया गया। तथापि आप इतने शान्त और गम्भीर रहे कि डाॅ. वर्जन दंग रह गए, बरबस उनकी जबान से निकला कि ‘ईसा की शान्ति की कहानियां सुना करते थे, परन्तु इस महापुरुष के जीवन से उस शान्ति के साक्षात दर्शन कर रहा हूं।
जीवन के संध्याकाळ में आपको कैंसर के रोग ने आक्रान्त कर लिया था। तथापि आप सदा शान्त रहते थे। भयंकर वेदना होने पर भी आपके चेहरे पर कभी उदासीनता या व्याकुलता नहीं देखी। लुधियाना जैन बिरादरी के लोग जब डॉक्टर को लाए और डॉक्टर ने जब पूछा- महाराज ! आपको क्या तकलीफ है ? तब आपने उत्तर दिया कि डॉक्टर साहिब, मुझे तो कोई तकलीफ नहीं, जो लोग आपको लाए हैं, इनको अवश्य तकलीफ है, उनका ध्यान करें। महाराज श्री जी की सहिष्णुता देखकर सभी लोग विस्मित हो रहे थे, और कह रहे थे कि कैंसर जैसे भयंकर रोग के होने पर भी गुरुदेव बिल्कुल शान्त है, जरा भी घबराहट नहीं। जैसे कोई बात ही नहीं है।

प्रधनाचार्य पद :
वि.सं. 2003 लुधियाना में आप पंजाब के स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के आचार्य बनाए गए और वि.सं. 2009 सादड़ी में आपको श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रधनाचार्य पद से विभूषित किया गया। सचमुच आपका गौरवमय व्यक्तित्व यत्रा, तत्रा और सर्वत्रा ही प्रतिष्ठा प्राप्त करता रहा है। क्या जैन, क्या अजैन सभी आपकी आचार तथा विचार समन्धि गरिमा की महिमा को गाते नहीं थकते थे। आज भी लोग जब आपके अगाध् शास्त्राीय ज्ञान की चर्चा करते हैं तो श्रद्धा से झूम उठते हैं।

साध्ना के चमत्कारी :
आप बाल-ब्रह्मचारी महापुरुष थे। 12 वर्ष की स्वल्प आयु में आपने जिस श्वेत चादर को धरण किया था, उसकी श्वेतिमा को कभी मटमैला नहीं होने दिया। प्रत्युत उसे पहले से भी अध्कि चमका करके दिखाया। यही कारण है कि आपका जीवन साध्ना-जनित चमत्कारों का एक निराला भण्डार रहा है। लुधियाना के डाॅ. वर्जन की कोठी का नक्शा आपने अपने स्थान पर बैठे-बैठे ऐसे बयान कर दिया था जैसे वह कोठी आपकी आंखों के बिल्कुल सामने हो। ऐसे अनेकों चमत्कारी आपके जीवन में देखने को मिलते हैं।

एक सपफल प्रवचनकार :
आचार्य प्रवर अपने युग के एक सपफल प्रवक्ता एवं प्रवचनकार रहे हैं। शास्त्राीय तथ्य एवं सत्य ही आपके प्रवचनों का आधर होते थे। उनसे हृदयस्पर्शी ठोस तत्व प्राप्त होता था। पं. जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, प्रतापसिंह कैरो, भीमसेन सच्चर आदि राष्ट्र के महान नेता भी आपके प्रवचनों का लाभ लेते रहे हैं। सचमुच आपकी वाणी में निराला माधुर्य था, सरल इतनी कि साधरण पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी उसे अच्छी तरह समझ लेता था। आपके हृदय से निःसृत वचन मानव मात्रा के कल्याण की पुकार लिए होते थे। आपके मंगलमय उपदेश आज भी जन-जीवन को नव जागरण का सन्देश दे रहे हैं।
यह आगम का सच है कि आत्मतत्व से जुड़े साध्क देह और चित्त की चंचलता से विमुक्त हो जाते हैं। आचार्यदेव आत्म तत्व से जुड़े हुए एक योगी-पुरूष-रत्न थे। उनका पूरा का पूरा समय साध्ना को समर्पित था। आत्म-ध्यान में वे पल-प्रतिपल डुबकी लगाते रहते थे।
आचार्यदेव वर्तमान में देह से अशेष हैं, परन्तु साध्ना के दिव्य रूप में वह सदैव शेष और स्मरणीय रहेंगे। उनकी अध्यात्म साध्ना युगों-युगों तक समाज और साध्कों को मार्गदर्शन देती रहेगी।